उर्दू शायरी

यहाँ पर आप पढ़ सकते हैं उम्दा शायरी के साथ घटिया शेर भी:

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में, 
किसकी बनी है आलम-ए-नापायेदार में,
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें, 
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में.

उम्र-ए-दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में.
कितना है बदनसीब "ज़फर" दफन के लिए,
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.

~बहादुर शाह ज़फर (24 अक्टूबर 1775 - 7 नवम्बर 1862)
___________________________________________________________

वो आए मेरी कब्र पर दिया बुझा कर चले गए,
बाकी बचा जो तेल था सर पर लगा कर चले गए!
~अज्ञात
____________________________________________________________

कोई हम नफस नहीं है, कोई राजदां नहीं है,
फकत एक दिल था अपना सो वो मेहरबान नहीं है.
मरने का तेरे ग़म में इरादा भी नहीं है,
है इश्क मगर इतना जियादा भी नहीं है.
इन्ही पत्थरों पर चल कर अगर आ सको तो आओ,
मेरे घर के रास्ते में कहीं कहकशां नहीं है.
क्यों देखते रहते हैं सितारों की तरफ,
जब उनसे मुलाक़ात का वादा भी नहीं है

~बहादुर शाह ज़फर  (24 अक्टूबर 1775 - 7 नवम्बर 1862)
____________________________________________________________


और भी चीजें लुट चुकी हैं बहुत सी इस दिल के साथ,
ये बताया दोस्तों ने इश्क फरमाने के बाद,
इसलिए कमरे की एक एक चीज चेक करता हूँ मैं,
इक तेरे आने से पहले इक तेरे जाने के बाद.


~अज्ञात
____________________________________________________________

कितनी बेकार उम्मीदों का सहारा लेकर,
मैंने ऐवान सजाये थे किसी की खातिर,
कितनी बेरब्त तमन्नाजों के माभम खाके,
अपने ख़्वाबों में बसाए थे किसी की खातिर.

मुझसे अब मेरी मोहब्बत के फ़साने न पूछो,
मुझको कहने दो कि मैंने उन्हें चाहा ही नहीं,
और वो मस्त निगाहें जो मुझे भूल गईं,
मैंने उन मस्त निगाहों को सराहा ही नहीं.

~ साहिर लुधियानवी (8 मार्च 1921 - 25 अक्टूबर 1980)
________________________________________________________________

दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त दर्द से भर न आये क्यों?
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों?

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों?

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरत-ए-मैहर-ए-नीमरोज़ 
आप ही हो नज़ारासोज़, परदे में मुंह छुपाये क्यों?

दशना-ए-गमज़ा जानसीतां, नावक-ए-नाज़ बेपनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख सही, सामने तेरे आये क्यों?

क़ैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म असल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों?

हुस्न और उसपे हुस्नजान रह गयी बुलहवस की शर्म
अपने पे  एतमाद है, ग़ैर को आजमाए क्यों?

वां वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़ा
राह में हम मिले कहाँ, बज़्म में वो बुलाये क्यों?

हाँ वो नहीं खुदापरस्त, जाओ वो बेवफा सही
जिसको हो दीं-ओ-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाए क्यों?

'ग़ालिब'-ए-खस्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं?
रोइए जार-जार क्या, कीजिये हाय-हाय क्यों?

~ मिर्ज़ा ग़ालिब
____________________________________________________________

Watch this space for more....
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...