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मंगलवार, 11 जनवरी 2011

मेरे मरने के बाद

(English Version: I am Dead. What Next?)
नवभारत टाईम्स के जनवरी 11, 2011 के अंक से:
समाचार #1: दिल्ली की एक अदालत ने पिता की बलि चढ़ाने वाले 25 वर्षीय एक व्यक्ति को सोमवार को मौत की सजा सुनाई.
समाचार #2: सलारपुर में किराये के मकान में रहने वाले एक युवक ने रविवार सुबह फांसी लगाकर जान दे दी.
समाचार #3: ईरान में उत्तर-पूर्वी शहर के पास खराब मौसम के कारण सरकारी विमान सेवा ईरान एयर का एक बोइंग 727 प्लेन क्रैश हो गया। इसमें 105 लोग सवार थे, जिसमें से 72 के मारे जाने की खबर है.
समाचार #4रविवार को मुंबई के वेस्टर्न एक्सप्रेस हाई वे पर वाकोला ब्रिज के पास मारुती और ट्रक की टक्कर में मारुती चला रही 46 साल की नीता ठक्कर की घटना स्थल पर ही मौत हो गई.

समाचार पत्र कितने  सुखवर्धक होते है, सच में. फेसबुक की तरह नहीं, जहाँ लोग बन ठन कर या तो जन्मदिन मनाते हुए या  महँगी  जगहों पर छुट्टी मानते हुए नज़र आते हैं. हालाँकि उन्हें देखकर मेरा दिल जलकर खाक हो जाता है, फिर भी मैं उन्हें लाइक करके उनपर अच्छे अच्छे कमेन्ट, जैसे कि, बहुत खूब, क्या बात है, बेहद खूबसूरत, इत्यादि लिख देती हूँ.


दिल की जलन कम करने के लिए, अख़बारों का ही सहारा है. उनसे मुझे बड़ी ही सांत्वना मिलती है, और मेरा मन इस ख्याल से ज़रा खुश जाता है कि इस दुनिया में सभी इंसानों की एक ही नियति है.

"इत्र सुवासित हों या मृदा आच्छादित,
अंततः होते हैं दोनों अग्नि को समर्पित,
हों अस्थियां महंगे या सस्ते कलश में एकत्रित,
साथ साथ बहती हैं होकर गंगा में विसर्जित."

~ गिरिबाला जोशी (प्रेरणा: जेम्स शर्ली द्वारा रचित 'डेथ द लेवलर' )

ऐसे समाचारों ने मुझ पर ऐसा असर कर दिया है कि पिछले कई दिनों से मैं खुद की मृत्यु की कल्पना करने लगी हूँ. मुझे अपना सगा सम्बन्धी अत्यंत दुखी अवस्था में विलाप करता हुआ नज़र आता है, "ये कैसी बर्बादी है. अरे, कम से कम दवा तो ख़त्म की होती. पैसे क्या पेड़ पे उगते हैं?"

और फिर कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि मेरे इस शरीर का क्या होगा जिसकी कि मैं जी जान से देखभाल करती हूँ. यदि मेरा दाह संस्कार किया गया तो ? मुझे जलने से बहुत परहेज है. कई बार धूप में उत्तल लेंस से खेलते हुए मैं खुद को जला चुकी हूँ और मैं सच कहती हूँ जलने से बहुत दर्द होता है.

मैं पुनर्जन्म को लेकर भी चिंतित हूँ . मुझे डर है कि मैं कोई कीड़ा मकोड़ा बनकर पैदा ना हो जाऊं. बचपन में जब भी मैं कीड़ों को चप्पल से मारती थी, ये जानने के लिए कि वे कैसी आकृति बनाते है और किस आकृति के बनने की कितनी प्रायिकता है, तो मेरा भाई मुझसे कहता था, "अगले जन्म में तू कीड़ा बनेगी और कीड़ा इन्सान, फिर वो तुझे इसी तरह कुचलेगा." और जब मैं किसी कुत्ते को पत्थर मारती थीवही तो, प्रायिकता जानने के लिए, और क्यातो वो कहता था, "अगले जन्म में तू कुत्ता बनेगी और कुत्ता..." हमेशा यही कहानी दोहराई जाती थी.

वैसे किसी भी घटना के घटित होने की प्रायिकता P(x) की गणना निम्न समीकरण की सहायता से आप भी कर सकते हैं:

P(x) \approx \frac{n_x}{n_t}.

जहाँ nt = पिचकाए गए कीड़ों की कुल संख्या, nx = उन परीक्षणों की संख्या जिसमे आकृति x बनी हो.

इस दुनिया से ईसाई या मुसलमान तरीके से विदा लेना भी कुछ कम दहशतकारी नहीं हैं. मुझे उन कीड़ों के बारे में सोचकर चिंता होती है जो दफनाये जाने के बाद मेरा मांस खायेंगे. उन्हें वो सारी बीमारियाँ सर जाएँगी जो मुझे लगी हुई हैं. और दूसरी बात ये है कि  मैंने कभी भी वो वाली तिकड़मबाजी नहीं की, जिससे स्वर्ग में जगह पक्की होती है. परिणामस्वरूप, मुझे तो गंधक की आग और गरम तेल से खौलते नरक में ही जाना पड़ेगा. मुझे अभी भी तलाश है ऐसे धर्म की जिसका नरक ठीक-ठाक ज़रा रहने लायक हो.

मेरी बहन, बिनोदिनी, ने सुझाया कि मुझे अपना शरीर वैज्ञानिक शोध के लिए दान कर देना चाहिए. मरणोपरांत परोपकार का यह तरीका मुझे तब तक अच्छा लगा जब तक कि मैंने ये ना पढ़ा कि ऐसे शरीरों का उपयोग कारों की प्रायोगिक टक्कर में किया जाता है. 

क्या कोई मुझे बता सकता है कि 5000 ईसा पूर्व इटली में कौनसा धर्म प्रचलित था क्योंकि वहां मिले इस शाश्वत आलिंगन में बंधे जोड़े के जीवाश्म ने मुझे गहरी सोच में डाल दिया है.

इटरनल इम्ब्रेस  ( सौजन्य  आर्कीअलजी  )

8 टिप्‍पणियां:

  1. किसी मुसाफिर के जैसी है हम सब की दुनिया
    कोई जल्‍दी कोई देर से जाने वाला

    ज्‍यादातर लोगों को सारी झंझट मरने से पहले की है।


    समाचार पत्र कितने सुखवर्धक होते है, सच में. फेसबुक की तरह नहीं, जहाँ लोग बन ठन कर या तो जन्मदिन मनाते हुए या महँगी जगहों पर छुट्टी मानते हुए नज़र आते हैं. हालाँकि उन्हें देखकर मेरा दिल जलकर खाक हो जाता है, फिर भी मैं उन्हें लाइक करके उनपर अच्छे अच्छे कमेन्ट, जैसे कि, बहुत खूब, क्या बात है, बेहद खूबसूरत, इत्यादि लिख देती हूँ.

    दिल की जलन कम करने के लिए, अख़बारों का ही सहारा है. उनसे मुझे बड़ी ही सांत्वना मिलती है, और मेरा मन इस ख्याल से ज़रा खुश जाता है कि इस दुनिया में सभी इंसानों की एक ही नियति है.


    बिल्‍कुल वरना आदमी खुद के गमों को गिनगिनकर मर न जाए।

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  2. धन्यवाद् अर्कजेश!
    अपने यहाँ भी भूत वाली फोटो लगा ली :-/

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  3. बिलकुल इक अलग-सा और अजीब-सा....मगर बेहद अच्छा-सा कुछ आपने लिख डाला है....बात कहाँ-से-कहाँ तक ले गयी हैं आप...मगर मैं तो इसे पढ़कर....जिन्दगी के बारे में सोच रहा हूँ....!!!

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  4. राजीव, ब्लॉग पढने के लिए शुक्रिया! आपके ब्लॉगर प्रोफाइल पर 8 ब्लॉग देखे! क्या आप सुझा सकते हैं कौनसा सबसे पहले पढना चाहिए? :-)

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  5. Very very interesting !! I am joining as a follower . Loved reading your post Giribala ji .

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  6. कितने मुफलिस हो गए कितने तवंगर हो गए
    खाक में जब मिल गए दोनों बराबर हो गए !!

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    1. आपने तो दो पंक्तियों में ही सार कह दिया! thanks :-)

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